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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक

भक्त बालक

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :49
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 882
आईएसबीएन :81-293-0517-8

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भगवान् की महिमा का वर्णन...

मोहन

 

एक छोटे-से गाँवमें एक विधवा ब्राह्मणी रहती थी। ब्राह्मणी अत्यन्त दरिद्रा थी, उसके एक छोटे-से पुत्रके अतिरिक्त कोई भी अपना नहीं था, ब्राह्मणीको दो-चार भले घरों में भीख माँगनेसे जो कुछ मिल जाता, उसीसे वह अपना और अपने शिशु पुत्र मोहनका उदर-निर्वाह करती। किसी दिन यदि बहुत कम भीख मिलती तो ब्राह्मणी स्वयं भूखी रहकर बच्चेको ही कुछ खिला-पिलाकर उसे हृदयसे लगा संतोषसे सो जाती। गाँवमें ऐसे लोग भी थे, जिनकी अवस्था बहुत अच्छी थी; परंतु गरीबअसहाय ब्राह्मणीकी किसीको कोई परवा न थी। महलों में रहनेवाले अमीरोंको बुरी तरहसे अनाप-शनाप वस्तुएँ पेटमें भरते रहनेके कारण मन्दाग्नि हुई रहती है, उन्हें पूरा-सा अन्न भी पचता नहीं, परंतु गरीबोंकी दशाका ध्यान उन्हें क्यों होने लगा? देशमें न मालूम कितने असहाय और गरीब नर-नारी भूखकी ज्वालासे तड़प-तड़पकर मर जाते हैं, उनकी दशापर कौन दृष्टिपात करता है? पर जिसके कोई नहीं होता, उसके भगवान् होते हैं, वह विश्वम्भर किसी तरह गरीबकी टूटी झोपड़ीमें भी उसका पेट भरनेके लिये कुछ दाने जरूर पहुँचा देते हैं।

ब्राह्मणीके बालक मोहनकी उम्र छः वर्षकी हो गयी। ब्राह्मणसंतान है; कुछ पढ़ाना ही चाहिये, परंतु किस तरह पढ़ाया जाय! गाँवके अधिकांश लोगोंकी दृष्टिमें तो ब्राह्मणी गरीब होनेके कारण घृणास्पद थी। ब्राह्मणीने एक दूसरे गाँवमें मोहनके पढ़ानेका प्रबन्ध किया। एक दिन वह उसको साथ ले दूसरे गाँवके गुरुजीके पास जाकर रोने लगी, गुरुजीको दया आ गयी। उन्होंने बालकको पढ़ाना स्वीकार किया। मोहन पढ़नेके लिये जाने लगा। गाँव दो कोस था, परंतु दरिद्रा ब्राह्मणीके बालकके लिये सवारी कहाँसे आती? मोहन पैदल ही आया-जाया करता! यद्यपि उस समय गुरुके घरों में बालकोंके रहनेकी प्रथा थी, परंतु मोहन बहुत छोटा होनेके कारण न तो वह गुरुगृहमें रहना ही चाहता और न माताको ही रातके समय अपने इकलौते बच्चेको आँचलमें छिपाकर सोये बिना चैन पड़ती। रास्ते में थोड़ी-सी दूर सुनसान जंगल पड़ता था। मोहनको उसीमेंसे होकर जाना पड़ता। सुबह सूर्योदयके समय ही वह जाता और संध्याको लौटते-लौटते अँधेरा छा जाता। इससे मोहनको जंगलमें बड़ा डर लगता।

एक दिन गुरुजीके घर कोई उत्सव था, इससे मोहनको वहाँसे लौटनेमें कुछ देर हो गयी। कृष्णपक्षके कारण जंगलमें अन्धकार घना हो गया था, मोहन रास्तेमें बहुत डरा, जंगली पशुओं और सियारोंकी आवाज सुनकर वह थर-थर काँपने लगा। ब्राह्मणी भी देर होनेके कारण उसको ढूंढ़ने चली गयी थी, डरते-काँपते हुए अपने लालको गोदी लेकर घर ले आयी। मोहनने कुछ शान्त होनेपर मातासे कहा, 'माँ! मैं रोज जंगल होकर आता-जाता हूँ, मुझे वहाँ बहुत डर लगता है, आज तुम नहीं पहुँचती तो न मालूम मेरी क्या दशा होती? दूसरे लड़कोंके साथ तो उनके नौकर जाते हैं, जो उन्हें सँभालते हैं, क्या मेरे लिये एक नौकर नहीं रखोगी?' बालककी सरल वाणी सुनकर अपनी दरिद्रताका ध्यान आते ही ब्राह्मणीकी आँखें डबडबा आयीं।

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    अनुक्रम

  1. गोविन्द
  2. मोहन
  3. धन्ना जाट
  4. चन्द्रहास
  5. सुधन्वा

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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